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इलैक्शन का अंकगणित (लघुकथा)

आओ सोचें...कुछ बेहतर
आओ सोचें...कुछ बेहतर
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सूबे में राजनीतिक बिसात पूरी तरह बिछ चुकी थी । तमाम नेता ख़ुद को जोड़-घटा के अंकगणित में उलझाकर अपने-अपने दलों के लिए संभावनाएँ तलाश रहे थे । हर कोई एक-एक तीर से कई-कई निशाने साधने की जुगत में लगा था ।

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“क्या पोजीशन है शुक्ल साहब ? कहाँ तक पहुँच रही है पार्टी की सीटों की सूई ?”, सदाशिव जी ने प्रश्नवाचक निगाह से देखते हुए शुक्ल जी से पूछा ।

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“पोजीशन लगभग पहले जैसी ही है सदाशिव जी, बस चार महीने पहले हुए घोटाले के कारण कुछ समझदार लोग थोड़े कट रहे हैं इस बार पार्टी को वोट देने के नाम पर”, शुक्ल जी ने स्थिति का आंकलन करते हुए बताया ।

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“तो कितना नुकसान हो सकता है ?”, सदाशिव जी के माथे पर सिलवटें उभरीं ।

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“तीन सीटें जा सकती हैं, जिसके बाद वापसी बहुत मुश्किल हो जाएगी । यूँ समझिएगा की बस नामुमकिन ही…”

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“हर वोट की कीमत लगा दो और ज़रूरत पड़ने पर उसे बढ़ा भी देंगे !”

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“लेकिन पढ़ा-लिखा तबका इस झाँसे में नहीं आएगा सदाशिव जी, अगर मामला ओपन हो गया तो पार्टी की भद्द पिट जाएगी”, शुक्ल जी ने जायज़ सी चिंता ज़ाहिर की ।

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“और ये पढे-लिखे लोग ही अपना भला ज़्यादा सोचते हैं, इसलिए इनसे उलझना ठीक नहीं होगा सदाशिव जी”, अफ़ज़ल मियाँ ने भी अपना पक्ष रखा ।

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“तो और कहाँ सेंधमारी की जाए अफ़ज़ल साहब, अगर ये तीनों सीटें गईं तो समझो हम भी गए”, सदाशिव जी की निराशा अब झल्लाहट में बदल रही थी ।

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“तो चुनावी घोषणाओं की रेवड़ियाँ बाँट दो सदाशिव जी, सबको इतना देने का वादा कर डालो कि लोगों को अपनी झोलियाँ छोटी लगने लगे”, अफ़ज़ल मियाँ के चेहरे पर कुटिलता के भाव उमड़े,”अब देना कितना है और देना है भी या नहीं ये तो फिर हमें ही देखना है न अगली बार !”

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“लेकिन अफ़ज़ल मियाँ घोषणाएँ तो ओपोजीशन वाले हमसे ज़्यादा कर सकते हैं और हमारा तो वक़्त और क़िस्मत दोनों ही ख़राब चल रहे हैं, कहीं ऐसा न हो कि हमारी लाठी टूट जाए और ये साँप हमें ही…”, शुक्ल जी ने अपनी शंका ज़ाहिर की ।

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“तो अफ़ज़ल मियाँ कुछ ऐसा सोचो कि रंग भी चोखा आ जाए और हींग-फिटकरी भी न के बराबर लगे”, सदाशिव जी ने बात को आगे बढ़ाया ।

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“पिछली दफ़ा अलीवाड़ इलाके की क्या तस्वीर थी अफ़ज़ल मियाँ ? क्या कुछ मिला था हमारी पार्टी को वहाँ से ?”, शुक्ल जी ने थोड़ा कैलक्यूलेटिव होते हुए पूछा ।

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“वहाँ की तो ग्यारह सीटों में से सिर्फ़ दो हमारे खाते में गई थीं शुक्ल जी, बाकी नौ तो ओपोजीशन वाले मार ले गए थे”, अफ़ज़ल मियाँ ने वक़्त की पुरानी तस्वीर साफ करते हुए बताया ।

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“…और वो तो भला हो कृष्णचंद्र जी और अनवर भाई का…जो ले-देकर दो सीटें ले आए, वरना तो गई थी भैंस पानी में”, सदाशिव जी ने कहा ।

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“तो इस बार इसी इलाके का समुद्र-मंथन करके अमृत निकालना चाहिए सदाशिव जी”, शुक्ल जी ने धीरे-धीरे टहलते हुए कहा ।

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“मगर कैसे ? वहाँ तो हम पहले ही इतने कमज़ोर…”, अफ़ज़ल मियाँ ने ज़बान खोली ही थी कि शुक्ल जी ने उनको तसल्ली दी,”वो आप मुझ पर छोड़ दीजिये, बस को-ऑपरेट कीजिये…और अगली दफ़ा भी लाल-बत्ती के हक़दार बन जाइए ।”

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…और फिर गहरी होती हल्की मुस्कान के साथ तीनों हाथ मिलाते हैं, गले मिलते हैं !!

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अगले सोमवार अख़बारों की हैडलाइंस थीं:

“अलीवाड़ में सांप्रदायिक दंगे, हालात बेकाबू”, “मुस्लिम-बहुल इलाके में हिंदुओं का कोहराम”, “सरकार ने विपक्ष पर लगाया दंगों का आरोप”, “मुख्यमंत्री सदाशिव राव ने दिया निष्पक्ष जाँच का आश्वासन” !!

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उधर बंगले पर सदाशिव जी ने ‘चीयर्स’ कहते हुए अफ़ज़ल मियाँ और शुक्ल जी से फिर गलबाहियाँ डालीं । सांप्रदायिक दंगों का तंदूर उनकी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए बिल्कुल तैयार हो चुका था । तत्पश्चात अफ़ज़ल मियाँ इलाके में अपनी गोटियाँ फिट करने निकल पड़े ।

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अबके अख़बारों में छपा था”
“हालात स्थिर, गृहमंत्री अफ़ज़ल ख़ान ने लिया जायज़ा” !!

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चिंतक

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